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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, के हर ख़्वाहिश पे दम निकले

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, के हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, के हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले. ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे इसे उठा ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे इसे उठा ज़ालिम कहीं ऐसा ना हो याँ भी वही काफ़िर सनम निकले
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सीनें में जुनूं, आंखों में देशभक्ति की चमक रखता हूं | भगत सिंह

सीनें में जुनूं, आंखों में देशभक्ति की चमक रखता हूं दुश्मन की सांसें थम जाए, आवाज में वो धमक रखता हूं   लिख रहा हूं मैं अंजाम, जिसका कल आगाज आएगा मेरे लहू का हर एक कतरा,  इंकलाब लाएगा मैं रहूं या न रहूं पर, ये वादा है मेरा तुझसे  मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आएगा  मुझे तन चाहिए, ना धन चाहिए बस अमन से भरा यह वतन चाहिए जब तक जिंदा रहूं, इस मातृ-भूमि के लिए और जब मरूं तो तिरंगा ही कफन चाहिए कभी वतन के लिए सोच के देख लेना, कभी मां के चरण चूम के देख लेना, कितना मजा आता है मरने में यारों, कभी मुल्क के लिए मर के देख लेना, हम अपने खून से लिक्खें कहानी ऐ वतन मेरे करें कुर्बान हंस कर ये जवानी ऐ वतन मेरे मैं भारतवर्ष का हरदम अमिट सम्मान करता हूं यहां की चांदनी, मिट्टी का ही गुणगान करता हूं  मुझे चिंता नहीं है स्वर्ग जाकर मोक्ष पाने की तिरंगा हो कफन मेरा, बस यही अरमान रखता हूं जमाने भर में मिलते हैं आशिक कई, मगर वतन से खूबसूरत कोई सनम नहीं होता, नोटों में भी लिपट कर, सोने में सिमटकर मरे हैं शासक कई,  मगर तिरंगे से खूबसूरत कोई कफन नहीं होता

अब ना मैं हूँ, ना बाकी हैं ज़माने मेरे​

अब ना मैं हूँ, ना बाकी हैं ज़माने मेरे​, फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे​, ज़िन्दगी है तो नए ज़ख्म भी लग जाएंगे​, अब भी बाकी हैं कई दोस्त पुराने मेरे। लू भी चलती थी तो बादे-शबा कहते थे, पांव फैलाये अंधेरो को दिया कहते थे, उनका अंजाम तुझे याद नही है शायद, और भी लोग थे जो खुद को खुदा कहते थे। हाथ ख़ाली हैं तेरे शहर से जाते जाते, जान होती तो मेरी जान लुटाते जाते, अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है, उम्र गुज़री है तेरे शहर में आते जाते। चेहरों के लिए आईने कुर्बान किये हैं, इस शौक में अपने बड़े नुकसान किये हैं,​ महफ़िल में मुझे गालियाँ देकर है बहुत खुश​, जिस शख्स पर मैंने बड़े एहसान किये है। ​तेरी हर बात ​मोहब्बत में गँवारा करके​, ​दिल के बाज़ार में बैठे हैं खसारा करके​, ​मैं वो दरिया हूँ कि हर बूंद भंवर है जिसकी​,​​ ​तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके। आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो, ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो, एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो, दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो। अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझको, वहाँ पर

तुम मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं

चारासाज़ों की चारा-साज़ी से दर्द बदनाम तो नहीं होगा हाँ दवा दो मगर ये बतला दो मुझ को आराम तो नहीं होगा शर्म दहशत झिझक परेशानी नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं आप वो जी मगर ये सब क्या है तुम मिरा नाम क्यूँ नहीं लेतीं साल-हा-साल और इक लम्हा कोई भी तो न इन में बल आया ख़ुद ही इक दर पे मैं ने दस्तक दी ख़ुद ही लड़का सा मैं निकल आया मेरी अक़्ल-ओ-होश की सब हालतें तुम ने साँचे में जुनूँ के ढाल दीं कर लिया था मैं ने अहद-ए-तर्क-ए-इश्क तुम ने फिर बाँहें गले में डाल दीं मैंने हर बार तुझ से मिलते वक़्त तुझ से मिलने की आरज़ू की है तेरे जाने के बाद भी मैंने तेरी ख़ुशबू से गुफ़्तुगू की है चाँद की पिघली हुई चाँदी में आओ कुछ रंग-ए-सुख़न घोलेंगे तुम नहीं बोलती हो मत बोलो हम भी अब तुम से नहीं बोलेंगे

आरज़ू

मिरी अपनी और उस की आरज़ू में फ़र्क़ ये था मुझे बस वो उसे सारा ज़माना चाहिए था - बुशरा एजाज़ नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ न जी भर के देखा न कुछ बात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की - बशीर बद्र इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद - कैफ़ी आज़मी मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई - असरार-उल-हक़ मजाज़ तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो - जौन एलिया मुझे ये डर है तिरी आरज़ू न मिट जाए बहुत दिनों से तबीअत मिरी उदास नहीं - नासिर काज़मी तिरी आरज़ू तिरी जुस्तुजू में भटक रहा था गली गली मिरी दास्ताँ तिरी ज़ुल्फ़ है जो बिखर बिखर के सँवर गई - बशीर बद्र मुझे ये डर है तिरी आरज़ू न मिट जाए बहुत दिनों से तबीअत मिरी उदास नहीं - नासिर काज़मी तिरी आरज़ू तिरी जुस्तुजू में भटक रहा था गली गली मिरी दास्ताँ तिरी ज़ुल्फ़ है जो बिखर बिखर के सँवर गई - बशीर बद्र बहाने और भी होते ज

इंसाफ़

मुन्सिफ़ हो अगर तुम तो कब इंसाफ़ करोगे मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते -अहमद फ़राज़ इंसाफ़ की तराज़ू में तौला अयाँ हुआ यूसुफ़ से तेरे हुस्न का पल्ला गिराँ हुआ -हैदर अली आतिश आसाँ नहीं इंसाफ़ की ज़ंजीर हिलाना दुनिया को जहाँगीर का दरबार न समझो -अख़तर बस्तवी अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और - आनिस मुईन आना है तो आ राह में कुछ फेर नहीं है भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है -साहिर लुधियानवी इंसाफ़ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारों देते हो सज़ा और ख़ता और ही कुछ है -अख़तर मुस्लिमी तुम्हारे शहर का इंसाफ़ है अजब इंसाफ़ इधर निगाह उधर ज़िंदगी बदलती है - महबूब ख़िज़ां ऐ देखने वालो तुम्ही इंसाफ़ से कहना चाँदी की अँगूठी भी है कुछ गहनों में गहना - इस्माइल मेरठी ज़ुल्म भूले रागनी इंसाफ़ की गाने लगे लग गई है आग क्या घर में कि चिल्लाने लगे - जोश मलीहाबादी मोहतसिब सच सच बता ख़ल्वत में क्या सौदा हुआ मुद्दई इंसाफ़ से महरूम कैसे हो गया - क़ासिम जलाल मुंसिफ़ को मस्लहत की ज़बाँ रास आ गई गो फ़ैसल